मीडिया संस्थानों के बाहर हो रही है असली पत्रकारिता: अभिषेक श्रीवास्तव

अभिषेक श्रीवास्तव छह साल से स्वतंत्र पत्रकार हैं. इससे पहले इन्होंने नवभारत टाइम्सइकोनॉमिक टाइम्सदैनिक भास्कर से लेकर बीबीसी हिन्दी तक में काम किया है. Acadman को दिए इस इंटरव्यू में उन्होंने अपने शुरुआती दिनों से लेकर स्‍वतंत्र पत्रकार बनने तक का सफर साझा किया है. उन्होंने हमसे उन रिपोर्टों के बारे में भी बात की है जिसकी वजह से उन्हें नौकरियां छोड़नी पडी और एक स्टोरी से कैसे चैनल ही बंद हो गया.


आप किस शहर से हैं? आप की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई?

मेरी पैदाइश गाजीपुर जिले (उत्तर प्रदेश) की है. यह बिहार के बॉर्डर से लगता है. यह इसलिए प्रसिद्ध है क्योंकि यहां पर देश का इकलौता अफीम कारखाना है. राही मासूम रजा वहां से आते हैं.

क्या आपने पत्रकारिता की पढ़ाई कीअपने स्टूडेंट लाइफ के बारे में हमे बताइए.

मैं मैथमैटिक्स का स्टूडेंट हूं. इंटर के बाद मैंने एक साल आईआईटी के लिए तैयारी भी की. फिर बीएचयू में बीएससी में नाम लिखवा लिया. बीएससी पूरी हुई 2002 में. और उसी साल गुजरात का दंगा हो गया. हम लोग यूनिवर्सिटी में स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स में इन्वॉल्व थे. कोई पॉलिटिकल समूह नहीं था. सभी संगठनों के साथ घूमते थे. इंडिपेंडेंटली अपना पॉलिटिक्स करते थे. 2002 में फरवरी में (BHU में) वाइस चांसलर को हटाने का एक आंदोलन चला. उस में हम बहुत एक्टिव थे.

भेड़ चाल थीहम भी उसका हिस्सा बन गए.

आगे क्या करना है यह तय नहीं था. इंजीनियरिंग की तैयारी सिर्फ इसलिए कर रहे थे कि भेड़-चाल थी. सब करते थे. उसके बाद हुआ कि समय क्यों खराब करें. बीएससी कर लेते हैं. बीएससी थर्ड इयर तक मैथमेटिक्स पढ़ने के अलावा मेरे पास कोई काम नहीं था. 2002 की घटना मेरे लाइफ में एक टर्निंग पॉइंट थी. इसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि आगे क्या करूं.

हालांकि, मैथमेटिक्स MSC का जो एंट्रेंस हुआ था उसमें मैंने टॉप किया. मैं अभी भी मैथमैटिक्स पढ़ाता हूं बच्चों को.

UNI-DIRECTIONAL पढ़ाई कहीं लेकर नहीं जाती

सोशल इश्यूज पर हम लोग बातचीत करते थे. गुजरात दंगे के दौरान हमने पर्चे बांटे. बनारस से लेकर लखनऊ तक. कैम्पेन में भाग लिया. उस दौरान यह बात समझ में आई कि uni-directional पढ़ाई आपको कहीं ले कर नहीं जाती. आप अपने डिसिप्लिन में सिमट कर रह जाते हैं. पॉलिटिकल इंटरवेंशन करना बहुत मुश्किल हो जाता है.

तो हमलोगों ने अपने डिसिप्लिन के साथ-साथ कुछ दूसरे फॉर्म भी भरे. मैंने एक जेएनयू से हिंदी का फॉर्म भरा और दूसरा आईआईएमसी का. दोनों के पीछे सोच यह थी कि एक तो जेएनयू में रहेंगे तो 5-6 साल कट जाएगा हिंदी पढ़ते-पढ़ते. थोड़ा रिसर्च भी हो जाएगा. कुछ फेलोशिप वगैरह मिल जाएगी तो जीवन कट जाएगा. बाद में कहीं मास्टरी लग जाएगी और जो अपना करना होगा सोशल-पॉलिटिकल काम भी कर लेंगे.

ग्रेजुएशन भी ट्यूशन पढ़ा कर ही पढ़ा

दूसरी सोच यह थी कि आईआईएमसी 9 महीने का अफेयर होता है. चूंकि मेरे पास सपोर्ट करने के लिए कोई फैमिली इनकम नहीं थी. मैं ट्यूशन पढ़ा कर ही पढता था. BHU से ग्रेजुएशन मैंने ट्यूशन पढ़ा कर ही पढ़ा. तो 9 महीने में वह ख़त्म हो जायेगा. कहीं नौकरी भी मिल ही जाएगी. फिर फील्ड में रहेंगे तो अपने सारे शौक पूरे करेंगे. जो भी सोशल-पोलिटिकल काम है. तो मैंने आईआईएमसी चुना.

आईआईएमसी में आपकी लाइफ कैसी थीवहां का एक्सपीरियंस कैसा रहा?

आईआईएमसी में कोई एक्सपीरियंस नहीं था. वह बस एक पिकनिक स्पॉट था. आईआईएमसी पढ़ने लिखने लायक संस्थान नहीं है. जो लोग पहले से काम भर का पढ़े-लिखे हैं उन्हें आईआईएमसी नहीं आना चाहिए. अगर वह आते हैं तो सिर्फ मोहर मरवाने के लिए आ जाएं. IIMC is a useless Institution. यह 2002 में भी था और आज भी है.

आईआईएमसी 9 महीने का पूरा मामला है. 9 महीने में 2-3 महीने तो छुट्टियां होती हैं. कायदे से 5–6  महीना पढ़ाई होती है. और जो पढ़ाई होती है वह न्यूज रूम की वास्तविक स्थिति और एक स्टूडेंट को कैसे तैयार करना है कि वह न्यूज़रूम में कैसे एडाप्ट करें, उस हिसाब से नहीं होती है. आपको कहा जाता है कि “ऑब्जेक्टिविटी इज अ मिथ”. लेकिन आप जैसे ही सब्जेक्टिव होकर न्यूज रूम में घुसते हैं, आपकी नौकरी चली जाती है.

दिक्कत यह भी है कि जो पढ़ाने वाले लोग हैं, चाहे आईआईएमसी के हों या किसी और जगह के, वह सारे के सारे लोग न्यूजरूम के एक्सपीरियंस से बहुत दूर हैं. उनको नहीं पता है कि न्यूजरूम में कैसे एक पत्रकार सर्वाइव करता है, अगर वह पत्रकारिता करना चाहता है तो.

आपकी पहली नौकरी कौन सी थी?

आईआईएमसी से निकलने के बाद मैंने जनसत्ता में इंटर्नशिप की. इंटर्नशिप वैसे एक ही महीना या 20 दिन का होता है, लेकिन मैं 4–5 महीने तक वहां काम करता रहा. पर कॉलम सेंटीमीटर नाप कर पैसे दिए जाते थे. मेरा काम था जंतर-मंतर पर खड़े होकर वहां से रिपोर्ट करना.

लेकिन इसे मैं नौकरी नहीं मानूंगा. कायदे से मुझे पहली नौकरी UNI वार्ता में सब-एडिटर की मिली. अक्टूबर 2003 में. वहां 3–4 महीने मैं डेस्क पर रहा. 2004 में इलेक्शन होने थे और हमारे एडिटर शिवसेना के आदमी थे. तो उनकी मजबूरी थी कि वह शाइनिंग इंडिया के चक्कर में सारे भाजपाई पत्रकारों को दिल्ली में इकट्ठा करें और सारे एंटी बीजेपी पत्रकारों को दिल्ली से भगा दें. तो उन्होंने कुछ लोगों को टारगेट किया. मैं भी उस चपेट में आ गया. मेरा ट्रान्सफर रांची कर दिया गया और जो रांची ब्यूरो देखते थे वह संघ के आदमी थे. आईआईएमसी से मुझसे एक बैच सीनियर थे. उन्हें दिल्ली बुला लिया गया. वहां झारखंड विधानसभा चुनाव कवर करने के बाद मैं वापस दिल्ली आ गया. मैंने लगभग 9–10 महीने नौकरी की UNI में.

उसके बाद अब तक आपने किस-किस संस्थानों में काम किया है?

यूएनआई से निकलकर मैं BAG फिल्म्स गया. अभी जो News24 चैनल है वह नहीं था, बीएजी फिल्म्स नाम का प्रोडक्शन हाउस था. यह लोग एनडीटीवी और स्टार न्यूज के लिए प्रोडक्शन करते थे. कमर वहीद नकवी साहब BAG फिल्म्स के हेड थे. फिर वहां भी कुछ मन नहीं लगा, झगड़ा हुआ, याद नहीं क्या हुआ, लेकिन छोड़ दिया मैंने. फिर चरखा नाम की एक डेवलपमेंट कम्युनिकेशन एजेंसी थी. उसमें भी मैं थोड़े दिनों के लिए था.

उसके बाद मैं नवभारत टाइम्स चला गया. फिर मुझे वहां से निकाल दिया गया. उसके बाद सीनियर इंडिया के मैगज़ीन के संपादक आलोक तोमर बने. उन्होंने मुझे बुलाया तो मैं उनके साथ चला गया. एक साल बाद सीनियर इंडिया पर छापा पड़ गया. सीनियर इंडिया के तमाम लोग जेल चले गए. मैं सीनियर इंडिया से निकल गया. एक स्टोरी के कारण बदमाशी की कुछ लोगों ने.

उसके बाद मैंने दूरदर्शन की आर्काइव में कुछ दिन काम किया. वहां श्याम बेनेगल वाले ”भारत एक खोज”  सीरियल की सब-टाइटलिंग का प्रोजेक्‍ट था। उसके प्रोजेक्ट पर काम किया. फिर मैं चला गया इकनॉमिक टाइम्स में. वहां मैं एक साल रहा. फिर चौथी दुनिया लॉन्च हो रही थी. मैं वहां चला गया. फिर मैंने एक साल दैनिक भास्कर में काम किया. वहां से निकला तो एक रीजनल चैनल लांच हो रहा था, खबर भारती. उसमें मैं आउटपुट हेड बना. उसे लांच करने के बाद मैं बीबीसी हिन्दी चला गया. कुछ दिन मैंने वहां भी काम किया.

इस साल सितंबर में 6 साल हो जाएंगे. 6 साल से मैं बिल्कुल खाली हूं. फिलहाल मैं किसी संस्थान से नहीं जुड़ा हूं. इंडिपेंडेंट पत्रकार हूँ. इंडिपेंडेंट असाइनमेंट लेकर रिपोर्टिंग करता हूं. ट्रांसलेशन करता हूं. स्क्रिप्ट लिखता हूं. और मेरा काम चल रहा है.

इतनी नौकरियां बदलने की जरूरत क्यों पड़ी?

क्योंकि मैं नौकरी करने नहीं आया था. नौकरी करने जो आएगा वह तो नौकरी में टिक जाएगा. मैं तो पत्रकारिता करने आया था. बाई चॉयस आया था.

मतलब अगर कोई 20 – 22 साल से किसी संस्थान में काम कर रहा है तो क्या वह पत्रकारिता नहीं कर रहा?

वह जाने बेहतर. सवाल नौकरी की अवधि का उतना महत्वपूर्ण नहीं है. सवाल यह है कि अगर 9 महीना आपने नौकरी की है तो 9 महीने में वहां आपने क्या किया ऐसा कि आप 9 महीना रह गए. और दूसरा 20 साल से वहां क्या कर रहा है कि 20 साल से वहां टिका हुआ है. सवाल यह है कि आप एक्जैक्टली कर क्या रहे हैं?

प्रांजय गुहा ठाकुरता, इतने बड़े पत्रकार हैं, EPW जैसे ग्रुप में एक साल नहीं टिक पाए. अपने लाइक माइंडेड जर्नल में. इस्तीफा देना पड़ गया.

आप अगर जर्नलिज्म करने आए हैं तो नौकरी की अवधि आपके लिए मायने नहीं रखती.

नवभारत टाइम्स में क्या हुआ थाक्यों निकाल दिया गया?

वहां धीरे-धीरे चीजें बिल्डअप हुईं मेरे खिलाफ. वहां मेरा काम था 9:00 बजे जो एडिशन जाता था उसमें फ्रंट पेज पर गलतियों को ठीक करने का था. मेरे इस काम से बहुत लोग ऑफेंड हो गए. क्योंकि मैं उस समय बहुत जूनियर था. फ्रंट पेज पर तो सीनियर-सीनियर लोग होते हैं.

दूसरी एक घटना थी जिसने इस चीज को ट्रिगर किया. भूषण स्टील फैक्ट्री है, गाजियाबाद में. एक दुर्घटना हुई थी वहां. उसमें कई मजदूर मारे गए थे. मैं वहां आस-पास ही रहता था. मैंने एडिटर से स्पेशल परमिशन ली थी इस रिपोर्ट को करने की. अखबारों ने रिपोर्ट किया था कि 4 मजदूर मारे गए. लेकिन मुझे खबर थी कि 16 मजदूर मारे गए. तो 12 मजदूर कहां गए इस पर मैंने इन्वेस्टीगेशन किया. और सभी जरूरी कागजात के साथ रिपोर्ट फाइल की.

मुझे कहा गया कि फ्रंट पेज पर इस रिपोर्ट को प्रमुखता से छापा जाएगा. एक हफ्ते तक वह लोग मुझे लटकाए रहे और अचानक वह रिपोर्ट एक दिन सर्वर से गायब हो गई. मेरे पास उसकी दूसरी कॉपी नहीं थी क्योंकि मैं सारे डॉक्यूमेंट दे चुका था. पहला-पहला अनुभव था. मुझे आईडिया नहीं था कि इस तरह स्टोरी गायब की जाती है. मैंने हर जगह चेक किया. रिपोर्ट नहीं मिली. तो अब आप क्या करेंगे? कुछ नहीं कर सकते हैं. आप झगड़ा ही कर सकते हैं. पूछ ही सकते हैं.

मैंने काफी प्रतिवाद किया. झगड़ा हुआ. बाद में पता चला कि चीफ रिपोर्टर ऑफेंड हो गए थे. उनका कहना था कि यह तुम्हारी बीट नहीं है. तुम किसके परमिशन से वहां गए रिपोर्ट करने. तो यही मेजर पॉइंट बना मेरे जाने का.

एक अच्छा पत्रकार बनने के लिए कौन से स्किल्स जरूरी हैं?

पांचों इंद्रियां ठीक-ठाक काम करें. जरा सा एनालिटिकल स्किल आपके पास रहे. आपकी भाषा हो उस चीज को एक्सप्रेस करने की जो आपको बताना चाह रहे हैं. वैसी ही भाषा आप डेवलप कर सकें. और क्या है? पत्रकार बनने के लिए कोई विशेष स्किल नहीं चाहिए.

स्किल वगैरह का मामला तो तब आया जब पत्रकारिता के कॉलेज बनने लगे. जितने महान बड़े पत्रकार हुए हैं, कॉलेज से पढ़कर थोड़े ही आए थे. अपनी समझदारी, अपने विवेक और समाज को समझने की क्षमता आप में है, तो आप अच्छे पत्रकार बन सकते हैं.

अपने कुछ रिपोर्ट्स के बारे में बताइए जिसका इम्पैक्ट बहुत हुआ हो. या जो बहुत मुश्किल रहा हो करने में.

मुश्किल तो बहुत था. लेकिन इंपैक्ट किसी का नहीं हुआ है. इंपैक्ट का मतलब यही हुआ है कि मुकदमा हो जाता है. बाकी तो इंपैक्ट क्या होना है?

एक स्टोरी मैंने 2007 में की थी. नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी पर. जिसके बाद कैलाश जी ने मुकदमा करवाया मानहानि का. वह आज तक चल रहा है. दूसरी स्टोरी के कारण नौकरी चली गई. जो मैंने आपको बताया. एक स्टोरी मैंने की थी इकोनॉमिक टाइम्स में. उस पर 50 करोड़ का मानहानि का केस हो गया था. लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप की अच्छी बात यह है कि आप नौकरी छोड़ देते हैं तो वह मुकदमा भी वह लोग ऐसे ही निपटा लेते हैं. अपने तरीके से.

तो इकोनॉमिक टाइम्स में जब मुकदमा हुआ तो मेरे ऊपर दबाव बना कि माफी मांगो. माफीनामे की शक्ल में खबर लिखकर लगानी थी. मैंने मना कर दिया. कोई माफी नहीं मांगी. उस समय एचआरडी मिनिस्टर थे अर्जुन सिंह. उनसे जुड़ी हुई स्टोरी थी. 2009 की बात है. मैंने नौकरी छोड़ दी. उसके बाद उस केस का क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम. मेरे पास कोई समन नहीं आया. इस खबर का ठीक ठाक इम्पैक्ट हुआ था.

एक स्टोरी थी जिसकी वजह से मैगजीन पर छापा ही पड़ गया. संपादक, प्रकाशक जेल चले गए. आलोक तोमर की बात जो बता रहा था मैं. दिल्ली पुलिस के खिलाफ स्टोरी थी. उसका रिएक्शन यह हुआ कि पुलिस ने छापा मार दिया. एक फर्जी FIR करा कर सब को अंदर डाल दिया. मतलब इंपैक्ट जो भी हुआ है वह अपना ही नुकसान हुआ है.

दिल्ली पुलिस वाली स्टोरी एक घोटाले के सिलसिले में थी. उस समय CNG के प्लांट लग रहे थे तो उसमें कुछ घोटाला था. जिसमें कांग्रेस का एक नेता भी शामिल था. बेसिकली प्रॉब्लम यह थी कि जो पार्टी गमन करके भागी थीजिसके खिलाफ स्टोरी थीउसका वकील दिल्ली पुलिस कमिश्नर का बेटा था. के. के. पॉल उस समय दिल्ली पुलिस कमिश्नर थे. हमलोगों ने कुछ सवाल उस केस के स्टेटस रिपोर्ट को लेकर फैक्स किया था दिल्ली पुलिस कमिश्नर को. लेकिन जो जवाब आया वह आरोपी के वकील की ओर से आ गया. यह अपने आप में एक discrepancy है. इस कहानी को लेकर दिल्ली पुलिस का ऐसा रिएक्शन हुआ कि बहुत लोग जेल गए. मैगजीन, चैनल बंद हो गया.

आज भारत में मेनस्ट्रीम मीडिया कैसा काम कर रही है?

जो भी कुछ चल रहा है संस्थानों के भीतर वह प्रोपेगंडा और एजेंडे पर चल रहा है. वह जर्नलिज्म नहीं है. जर्नलिज्म इंस्टिट्यूशनल नहीं होता है. पहले भी नहीं था. पत्रकारिता संस्थानों के बाहर हो रही है. संस्थानों के बाहर अच्छे रिपोर्ट आ रहे हैं. आपको बढ़िया रिपोर्ट मिलेगी छोटी वेबसाइटों पर. जो इंडिपेंडेंट है. जिन वेबसाइटों में किसी अंबानी का पैसा नहीं लगा है. जो पब्लिक ट्रस्ट से चलती है.

यह कॉरपोरेट ग्रुप के रहने वाले सारे लोग स्टेनोग्राफर हैं, टाइपिस्ट हैं. वह लोग ईएमआई से दबे हुए हैं. यह EMI भरने के लिए नौकरियां कर रहे हैं. कोई भी पत्रकार नहीं है. बहुत सीधी सी बात है.

जर्नलिज्म के स्टूडेंट्स के लिए आपका मैसेज?

लोगों की इच्छाएं अलग-अलग होती हैं. तो सबके लिए एक सलाह नहीं हो सकता. आप यह तय कर लें कि आप करने क्या आए हैं? जर्नलिज्म करने आए हैं? ग्लैमर के लिए आए हैं? या पावर के लिए आए हैं? जो जर्नलिज्म के लिए जो आया है, मैं उसी के लिए कुछ कह सकता हूं.

जर्नलिज्म के इंस्टिट्यूशन यह सीखने के लिए है कि आपको क्या नहीं करना है. आपको अगर यह पता चल जाएगा कि क्या नहीं करना है, तो आपको बड़ी आसानी से यह पता होगा कि आपको क्या करना है.

मैंने अब तक 14 संस्थानों में काम किया है और मैं अच्छे से जानता हूं कि मुझे क्या नहीं करना है. क्योंकि जो सारी चीजें वे लोग कर रहे हैं, मैं उसके लिए थोड़ी हूं. जो भी वह कर रहे हैं 90% कचड़ा है. प्रोपेगंडा है. प्रचार है. मैं पत्रकारिता करने आया हूं और मुझे पता है कि क्या करना है. कुछ लोग मन बना लेते हैं कि सारा मीडिया कॉरपोरेट है और मीडिया घरानों में जर्नलिज्म नहीं हो रहा है… यह अच्छी बात है. लेकिन इसके बावजूद आपको संस्थान में जाना चाहिए. यह जानने के लिए कि आपको क्या नहीं करना है. और फिर कुछ दिन बाहर रहना चाहिए. उस संस्थानों से. बाहर रहकर अपना एक सस्टेनेबल मॉडल बनाना चाहिए कि बिना संस्थानों में नौकरी के आप कैसे जिंदा रह सकते हैं. इसको एक्सप्लोर करें. क्योंकि अब धीरे-धीरे संस्थान के बाहर रहकर भी पत्रकारिता करना लगभग असंभव हो गया है. मैं अनुवाद करता हूं और इसी के कारण मैं सस्टेन कर पाता हूं. अगर मैं ट्रांसलेशन ना करूं तो फ्रीलान्स रिपोर्टिंग या फ्रीलान्स असाइनमेंट करता हूं. लेकिन उसमें पैसे नहीं आते.

दिल्ली में हिंदी भवन के बाहर एक लेखक, लक्ष्‍मण राव, चाय बेचते हैं. लगभग 20 साल से बेच रहे हैं. उन्होंने 20 से ज्यादा किताबें लिखीं हैं. सारे हिंदी लेखकों ने उनका बहिष्कार कर दिया है. कोई उनके साथ खड़ा नहीं होता है. लेकिन उनकी किताबे बेस्ट सेलर्स हैं. वह चाय बेचकर पैसे कमाते हैं और उससे वह किताब लिखते हैं. एकदम जिंदा मॉडल है हमारे सामने. अपने शौक को पूरा करने के लिए आपको क्या नहीं करना पड़ सकता है. कोई मसीहा आपको बचाने नहीं आएगा कि आप बहुत अच्छा कर रहे हैं. बल्कि लोग आप का रास्ता रोकेंगे ही. तो यू मस्ट क्रिएट अ सस्टेनेबल मॉडल.


This interview is taken by @alokanand. To suggest an interview, feedback, comments you can write him at alok@acadman.org

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