नितिन पिछले छः सालों से मीडिया के अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे हैं. इसमें खासतौर पर वेबसाइट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया शामिल है. वर्तमान में वह आज तक में बतौर एडिटोरियल प्रोड्यूसर काम कर रहे हैं. इससे पहले उन्होंने न्यूज 24, जी न्यूज और बिजनेस चैनल CNBC के साथ काम किया है. आप उन्हें ट्विटर पर फॉलो कर सकते हैं @nitinthakur
नितिन ठाकुर के इंटरव्यू को हम दो पार्ट में पब्लिश कर रहे हैं. पहले पार्ट में जानिए नितिन से जर्नलिज्म में आने के टिप्स, यह भी कि पहली नौकरी के लिए स्टूडेंट को क्या तैयारी करनी चाहिए. दूसरे पार्ट में आप जानेंगे नितिन का पर्सनल प्रोफाइल, उन्होंने कैसे पढाई की और कैसे उनका एडमिशन IIMC में नहीं हुआ.
सबसे पहला सवाल, जर्नलिज्म की नौकरी के लिए इंटर्नशिप कितना जरूरी है?
इंटर्नशिप कम से कम इस फील्ड में बहुत जरूरी है. क्यूंकि ये फील्ड प्रैक्टिकल बहुत है. इसमें कॉमन सेंस बहुत चाहिए. आपका कॉमन सेंस होना चाहिए कि आप कैसे सिचुएशन में कैसे डील करेंगे. इस फील्ड में बहुत तेजी से फैसला करना होता है. खासकर के टीवी पे तुरंत खबर आती है और तुरंत रिएक्शन देना होता है. जटिल खबर को आसान ढंग से समझाना होता है. और क्यूंकि विजुअल मीडियम है तो आपको दृश्य की समझ होनी चाहिए. कौन सा अच्छा विजुअल है. कौन सा जाना चाहिए. एथिकली कौन सा सही है. तो यह सब डिसिजन लेने के लिए आपको बहुत कम वक्त मिलता है. बहुत ही कम वक्त. और चूंकि कम्पटीशन भी बहुत है. क्यूंकि दूसरा चैनल भी उसी को चलाने वाला होता है. तो इंटर्नशिप में आपको यह सब चीजें सीखने को मिल जाती हैं.
जर्नलिज्म के सिलेबस को लेकर सवाल उठते रहते हैं, आपकी क्या राय है?
कॉलेज में आज तक सही से कोई सिलेबस तय नहीं हो पाया है. पत्रकारिता का सिलेबस बहुत ही उधार का लिया हुआ है. इसके कारण आपको कुछ भी पढ़ा दिया जाता है. पढ़ाने के नाम पे. पर काम तो आखिर में आपको प्रैक्टिकल ही करना है. तो इंटर्नशिप में प्रैक्टिकल काम करना सिखाया जाता है, जो आपको आखिर में करना है. दूसरी तरफ आपको किताब पढ़नी पड़ती है, जिसका ज्यादा कोई मतलब नहीं होता.
मीडिया इंस्टीट्यूट कितनी मदद करते हैं?
आपको मीडिया इंस्टिट्यूट में बैठ कर न्यूजरूम का बहुत कुछ पता नहीं चलता. लेकिन एक फर्क आता है, अगर आपके पास सिफारिशे नहीं है तो चैनलों में एंट्री करने के लिए कॉलेज सहयोगी हो सकते हैं.
आपने अपने करियर की शुरुआत कहां से की? वहां नौकरी कैसे मिली?
न्यूज 24 में इंटर्नशिप करने के बाद मैंने वहीं ज्वाइन कर लिया. वहां मैंने कई तरीके से काम किया है. बिल्कुल शुरुआत में मुझसे पूछा नहीं गया और मुझे एंटरटेनमेंट में डाल दिया गया. तो E24 में मैंने 15 दिन काम किया. फिर न्यूज 24 के पैकेजिंग डिपार्टमेंट में आ गया. पैकेजिंग मूल रूप से एडिटर को स्टोरी एडिट करने में सहयोग करना होता है. आप उनके असिस्टेंट की तरह काम करते हो. मैंने वहां बहुत कुछ सीखा.
फिर मैं BAG फिल्म्स में चला गया. प्रोडक्शन हॉउस में. वहां मैंने कुछ समय वेबसाइट में काम किया. फिर एक इंडिया इन्वेस्टिगेट नाम की क्राइम सीरीज थी उसमें भी काम किया.
फिर मैं न्यूज 24 में लौटा और एडिटोरियल में काम किया. फिर जी न्यूज राजस्थान के लिए एक चैनल लांच हो रहा था मैं वहां चला गया. वहां मैंने चैनल के लौन्चिंग में काम किया. फिर जी मध्य प्रदेश का एक चैनल था. मैंने वहां भी काम किया. उसके बाद मैंने नौकरी छोड़ दी और मुंबई चला गया. मुंबई में मैं एक दो महीना रुका. फिर मैंने नेटवर्क 18 के बिजनेस चैनल CNBC में करीब सवा साल काम किया. उसके बाद मैं फिर नोएडा लौट आया और आज तक ज्वाइन किया.
तो न्यूज 24 में थोड़े वक्त के अलावा मैं ज्यादातर स्क्रिप्टिंग में ही रहा हूं. जिसको एडिटोरियल भी कहते हैं. तो हर जगह का अपना ही अनुभव था. न्यूज 24 में जहां शुरुआती चीजें सीखी वहीं दूसरी जगहों पर चैनलों की लॉन्चिंग के बारे में भी सीखा. CNBC में मुझे बिजनेस चैनल की बारीकियां पता चलीं. यह पता चला कि देश में जो राजनीति है, वो दरअसल विमर्श कुछ कराती है और ज्यादातर उसमें जो काम हो रहे होते हैं, वो कॉरपोरेट मोटिव से होते हैं. वहां मुझे देश की आर्थिक नीतियां समझ में आईं. पता चला कि आम आदमी, जिस पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है, सरकार चाहती है कि ज्यादा बारीकियां इन्हीं को पता ना चलें. भारी भरकम शब्द, आंकड़े इस तरह से डाली जाती है कि लोगों को समझ में ना आए. तो बिजनेस चैनल ने मुझे बहुत कुछ सिखाया. और फिर मैंने आज तक ज्वाइन किया
एक एडिटोरियल प्रोडूसर का काम क्या होता है? आज तक में आपका रोल क्या है?
मूलतः एडिटोरियल प्रोडूसर लिखता है. स्क्रिप्टिंग करता है. लेकिन अगर खास तौर पर मेरी बात की जाए तो मैं रन-डाउन नाम की जगह पर बैठता हूं. रन-डाउन एक समय सारणी की तरह है. जैसे रेलवे स्टेशन पर एक चार्ट लगा होता है कि कौन सी गाड़ी कितने बजे आएगी और कितने बजे जाएगी. तो ऐसे ही किसी भी चैनल को चलने के लिए रन डाउन बहुत अहम होता है. चैनल टाइम के हिसाब से चलता है. कितने बजे प्रोग्राम ऑन एयर होगा? हेडलाइंस क्या होंगी? किस चीज से शुरुआत की जायेगी?
किस खबर को पहले लिया जायेगा? किस खबर को बाद में लिया जायेगा? किस खबर को बड़ा किया जायेगा? किस खबर को छोटा किया जायेगा? किस जगह पर विज्ञापन आएंगे? एंकर क्या बोलेगा? ब्रेकिंग क्या बने? तो यह तमाम काम सिर्फ रन डाउन में होते हैं. हर आधे घंटे का एक चार्ट होता है. रन डाउन चैनल की ऐसी जगह होती है जहां सबसे तेज काम करना होता है. सबसे जल्दी फैसले लेने होते हैं. और फाइनली ये सारी चीजें आपके थ्रू होकर गुजरती हैं. हम प्रोग्राम को फाइनल टच भी देते हैं. हमको देखना पड़ता है कि एलाइनमेंट सही है या नहीं. ऊपर जो खबरें आती हैं, वो सही आनी चाहिए. एंकर जहां खड़ा होकर खबर देता है उसके पीछे का सेट सही होना चाहिए. तो ये बहुत सारी बारीक चीजें होती हैं जिन्हें हमें देखना पड़ता है
इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म को लेकर अभी देश में क्या स्थिति है?
इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म बहुत कम समय के लिए टीवी में आया था, जितना मुझे मालूम है. पर ये आगे जरूर बढ़ सकता है. वो और इसलिए बढ़ सकता है क्यूंकि आपके पास और कुछ करने के लिए बचा ही नहीं है. कम लागत में और कम मेहनत में जितनी trp आनी थी आ चुकी. क्यूंकि कॉम्पटीशन बढ़ रहा है. लेकिन जब मैं कह रहा हूं कॉम्पटीशन बढ़ रहा है और स्कोप कम हो रहा है तो उसके मायने ये हैं कि टीवी में स्कोप कम हो रहा है. टीवी में एक भारी भीड़ है जो चली आ रही है. भीड़ बहुत है और क्वालिटी नहीं है.
जब दिखाई देगा कि सब एक ही जैसा कुछ कर रहे हैं तो इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म शायद प्रचलन में आए. अब एक चीज और है कि चुनौती इस लिए बढ़ रही है कि वेबसाइट बढ़ रही है. तो वेबसाइट के पास एक सुविधा है कि वो प्रिंट की तरह से भी काम कर सकती है और टीवी की तरह भी. लेकिन टीवी के साथ ये सुविधा नहीं है.
ऐसा सुनने में आता है कि मीडिया कंपनियां अब किसी एंकर को ब्रांड नहीं बनने देना चाहती. तो अभी कोई स्टूडेंट जो रविश कुमार या सुधीर चौधरी बनने के सपने देख रहा है उसके लिए यह कितना मुश्किल है?
किसी भी एंकर का ब्रांड होना चैनल के लिया अच्छा बुरा दोनों है. अगर आपका एंकर ब्रांड है तो लोग उसको देखने के लिए आपके चैनल से जुड़ेंगे. तो यह तो चैनल का मालिक तय करे कि एंकर को ब्रांड बनाना है या नहीं. लेकिन जहां तक बात रविश कुमार या सुधीर चौधरी बनने की है तो लोगों को शुरुआत में पता ही नहीं होता कि टीवी चैनल किसी एक आदमी से काम नहीं करता. बल्कि इसमें सबकी बराबर भूमिका होती है. लोगों को यह नहीं पता होता कि सुधीर चौधरी के पीछे पच्चीस लोगों की टीम है. क्यूंकि एक आदमी के लिए एक पूरा शो करना मुमकिन नहीं है. जैसे कि कोई हीरो अकेला फिल्म नहीं बनाता.
लोगों को लगता है कि सबकुछ एंकर बोल रहा है. लेकिन हकीकत ये है कि एक-एक शब्द उसका कोई और लिख रहा होता है.
बहुत कम एंकर हैं जो लिखते हैं. सुधीर चौधरी की जहां तक बात है तो ‘नमस्कार, मैं सुधीर चौधरी’ भी शायद कोई लिख के ही देता होगा.
हिंदी से अंग्रेजी में शिफ्ट करना कितना मुश्किल है?
शिफ्ट करना क्यूं है?
क्यूंकि हिन्दी में अंग्रेजी की तुलना में बहुत कम पैसे मिलते हैं? और इंग्लिश में सामान्यतः रिपोर्ट्स की क्वालिटी बेहतर होती है?
बहुत सही बात है. अंग्रेजी में ज्यादा पैसा है और हिंदी में कम. लेकिन ऑल ओवर जर्नलिज्म में पैसा ही नहीं है. इतने जटिलताओं से अगर पैसे का गणित समझना है तो कहीं और जाना चाहिए.
दूसरी बात हिन्दी जर्नलिज्म में पैसा नहीं है. ये किसने कहा? अब तो वेबसाइट में शुरुआत में ही 25,000 मिलते हैं. पहले 25,000 टीवी में पाने में चार साल लग जाते थे. अब मोबाईल एप्स आ रही हैं हिन्दी में. अब तो वोडाफोन जैसी कंपनियां हिन्दी में बिल भेजती हैं. और इसके अलावा The Quint अंग्रेजी में आता है तो उसे हिन्दी में भी आना पड़ता है. स्क्रॉल आता है तो सत्याग्रह बनाना पड़ता है. वायर इंग्लिश में आता है तो उसे हिन्दी में भी आना पड़ता है. तो ये उल्टी गंगा क्यूं बह रही है.
जर्नलिज्म के स्टूडेंट्स के लिए कोई सुझाव, खासकर जो टीवी में आना चाहते हैं?
होमवर्क मजबूत करो. क्यूंकि एक बार नौकरी में आने के बाद साबित करने का मौका मिलता नहीं है. पढ़ाई जितनी हो सके उतनी अच्छी करो. खासतौर पर संविधान जरूर पढ़ों. हो सके तो IPC थोड़ी बहुत जरूर पढ़नी चाहिए. उसके अलावा इतिहास बहुत जरूरी है. आपकी इंग्लिश अच्छी होनी चाहिए.
हिन्दी में काम करने के लिए भी इंग्लिश अच्छी होनी चाहिए?
हां. क्यूंकि हिन्दी का दर्शक आप पर निर्भर करता है कि आप उसको सरल भाषा में खबर देंगे. अब एक इंटरनेशनल खबर है और आपको उसे बताना है हिन्दी के दर्शकों को, तो वह तो अंग्रेजी में आ रही है खबर. अगर आपको अंग्रेजी नहीं आयेगी तो आप खुद नहीं समझ पाएंगे.
मीडिया की सारी अच्छी किताबें भी अंग्रेजी में ही है. और अंग्रेजी का गढ़ तोड़ने के लिए भी आपको अंग्रेजी आनी चाहिए. हालांकि मैं इन बातों को मानता ही नहीं हूं. लेकिन एक प्रभु वर्ग की भाषा अंग्रेजी हो गई है. अगर आप प्रभु वर्ग की चीजें समझना चाहते हैं तो आपको अंग्रेजी समझनी पड़ेगी. भाषा बहुत जरूरी है. हिन्दी इंग्लिश दोनों. इंग्लिश बोलने न आये तो समझनी तो बहुत ही जरूरी है. इसको स्किप करके आप अच्छे पत्रकार बिलकुल नहीं बन सकते.
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