भारतीय पत्रकारिता सिर्फ स्टार पत्रकारों की पत्रकारिता नहीं है. टीवी पर प्राइम टाइम लेकर बड़ी बहस कर रहे पत्रकार ही पत्रकारिता नहीं कर रहे. उनके शोरगुल से कुछ कदमों की दूरी पर भी कई ऐसे लोग हैं जो भारतीय पत्रकारिता की मजबूर रीढ हैं. उनकी पत्रकारिता बेहद सशक्त है. पावरफुल. ऐसे ही एक शख्स का नाम है राजेश जोशी. राजेश जोशी बीबीसी हिन्दी सर्विस के रेडियो एडिटर हैं और एक बेहद तेजतर्रार रिपोर्टर. उन्होंने बीबीसी के लंदन ऑफिस में भी करीब 8 साल काम किया है. जनसत्ता और आउटलुक के लिए भी रिपोर्टिंग की है. युद्ध और नक्सलिज्म उनके कवर किए टॉपिक में महत्वपूर्ण हैं.
पढ़िए बीबीसी हिन्दी के रेडियो एडिटर राजेश जोशी का acadman दिया इंटरव्यू का दूसरा हिस्सा…
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बीबीसी जैसी किसी इंटरनेशनल संस्था में कोई पत्रकार काम करना चाहता है, उसे कैसी तैयारी करनी चाहिए ?
सबसे पहले लैंग्वेज. भाषा आपको आनी चाहिए. अंग्रेजी कर रहे हैं तो अंग्रेजी, हिन्दी तो हिन्दी. भाषा में कोई वर्तनी की गलती नहीं होनी चाहिए. शब्दों का घालमेल नहीं होना चाहिए. शुद्ध भाषा नहीं कहूंगा मैं, लेकिन ऐसी जो समझ सकें लोग. और उसका व्याकरण ठीक होना चाहिए. शब्दकोश बहुत जबरदस्त होना चाहिए.
अभी चूंकि बहुत चीजें बदली हैं. मल्टीमीडिया एज में हम हैं. तो आपको यह मालूम होना चाहिए कि स्टोरी सोशल मीडिया से कैसे आइडेंटिफाई करते हैं. कैसे फिल्टर करना है. ट्रेंड को पकड़ने की तहजीब आनी चाहिए. कौन सी चीज ट्रेंड कर रही है, क्या ट्रेंड करेगी. उसमें क्या लोगों को पसंद आएगा और क्या पसंद आना चाहिए. इन सबका आपको अंदाजा होना चाहिए. फिर आपको मल्टीमीडिया की जानकारी, वेब जर्नलिज्म, प्रिंट, वीडियो, आईफोन कैसे चलता है. बेसिक वीडियो एडिटिंग कैसे होती है.
आप इंग्लिश जर्निज्म में भी गए, विनोद मेहता के साथ काम किया, क्या आप इंग्लिश जर्नलिज्म में भी उतने ही कंफर्टेबल थे? फिर हिन्दी में लौटना? बीबीसी इंग्लिश का रुख क्यों नहीं किया ?
अंग्रेजी में ही क्यों करना चाहिए था? मैं इसमें ज्यादा कंफर्मेटबल हूं. मेरी मातृभाषा है. मैं अंग्रेजी में लिखता हूं अभी भी. मुझे मौका मिलेगा तो मैं फिर अंग्रेजी में भी करूंगा.
अमिताभ बच्चन का एक इंटरव्यू करने के बाद आपने एक ब्लॉग लिखा था. जिसमें आपने उनकी पर्दे और असली जिंदगी के अंतर को दिखाया था… उस पर किस तरह की प्रतिक्रिया मिली आपको?
बड़े ही दिलचस्प तरीके का फीडबैक मिला. लोगों ने बहुत पसंद किया उस चीज को. अब अमिताभ बच्चन ने इतना काम कर लिया है न कि मेरा जैसा टिप्पणीकार उनके ऊपर कुछ भी लिखे, आलोचना करे या तारीफ करे, उनको उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. उनका ऐसा ओहदा, मकाम है. लेकिन मुझे लगता है कमर्शियल मुंबई में रहते हुए आदमी का एक खास तरह की पर्सनलिटी बन जाती है. अमिताभ बच्चन उससे अलग नहीं हैं. जब इंटरव्यू मैं कर रहा था तो मैं 20 मिनट के बाद बहुत बोर हो गया. तो मैंने इंटरव्यू समाप्त कर दिया. और उसके बाद लिखा क्यूंकि मुझे लगा कि लिखना चाहिए.
थोड़ा पीछे लौटते हैं. बताइए कि आपका जन्म कब और कहां हुआ? पहले 15 साल कहां और कैसे गुजरे ?
उत्तराखंड के नैनीताल जिले में एक छोटा सा गांव है गोलापार. हलद्वानी के पास. वहां मेरा जन्म हुआ. पहले 15 साल नैनीताल जिले के ही छोटे-छोटे गांवों में, कस्बों में बीता. एक बहुत छोटी जगह है, जहां हम पैदल जाते थे या घोड़े से जाते थे, वेतालघाट. फिर तराई में आए, हावर में आए. यहां स्कूल में पढ़ा मैं. इसका फायदा हुआ. तराई एक ऐसी जगह है जहां पहाड़ी लोग भी रहते हैं, पंजाबी, पाकिस्तानी-बांग्लादेशी विस्थापित भी रहते हैं. पूर्व के और बिहार के लोग भी. तो गुलदस्ता है वो. इन तमाम कल्चर से मेरा बचपन में ही एक्सपोजर हो गया.
और तब के राजेश जोशी कैसे शख्स थे ? कितना खेलते थे और कितना पढ़ते थे?
मैं बहुत ही सामान्य, बहुत ही झिझकता हुआ, सकुचाया हुआ एक बच्चा था. निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आता हूं. पिता सरकारी कर्मचारी थे. छोटे-छोटे कस्बों में रहते थे. हिन्दी मीडियम स्कूल में हम जाते थे. और अंग्रेजी माध्यम में जाने वाले स्कूलों के बच्चों को हम किसी दूसरे ग्रह का प्राणी समझते थे. उन्हें कौतूहल से देखते थे.
आपकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई कैसी थी ?
जिस परिवार से मैं आता हूं, वहां हमारे ऊपर पढ़ाई के लिए बहुत जोर होता था. हमें इजाजत नहीं थी फिल्म देखने की, न कुछ और करने की. पढ़ने का मतलब होता था अंग्रेजी या गणित पढ़ना. तो यह बहुत संकुचित दायरा पढ़ाई का था. क्वालिटी एजुकेशन नहीं था. जिन स्कूलों में पढ़ा, वहां नकल बहुत होती थी, जहां से 9वीं-10वीं किया. इतनी बेसुमार नकल होती है, पता नहीं, अब भी होती होगी. आप उसमें बह जाते हैं कि सबलोग तो एक कुंजी लेकर जा रहे हैं.
पढ़ाई को लेकर आगे चीजें बदली कब ?
धीरे धीरे आदमी जब बड़ा होता है तो आदमी चीजों को सीखता है. तो संकुचित दायरे से बाहर निकलता है. और फिर सेल्फ स्टडी और अपने आप को ट्रेन करना मजबूरी हो जाती है. अगर आप जिंदगी में कुछ करना चाहते हैं. खुद से चीजों को एक्सप्लोर करना. या ऐसे ग्रुप में बैठना जहां, कविता, कहानियां, न्यूज, करंट अफेयर्स, ड्रामा की बात हो. उसमें गए तो और ज्यादा एक्सपोजर हुआ.
आपके तब कैसे सपने हुआ करते थे, क्या बनना चाहते थे तब ?
मैं अगर इसे बहुत ग्लैमराइज करना चाहूं तो मैं बहुत सारी चीजें कह सकता हूं. लेकिन आप अगर किसी छोटे कस्बे से आते हैं तो उस दौर में हमारे कोई सपने ही नहीं होते थे. यह बहुत पॉलिटिकली करेक्ट बात होगी अगर मैं कहूं मैं हमेशा पत्रकार बनना चाहता था. 80 के जमाने की बात कर रहा हूं. आज तो बहुत ज्यादा एस्पिरेशन बढ़ गया है. उस वक्त ये होता था कि किसी तरह से पढ़ाई पूरी कीजिए और किसी अच्छे जॉब में लग जाए. माता पिता की ओर से भी यही प्रेशर होता था और अपने लिए भी यही गोल होता था. लेकिन धीरे-धीरे एक चीज पैरेलल डेवलप होने लगी. और वो क्या होगा, तब बहुत क्लिअर नहीं था.
जैसे जैसे बड़े होते गए तो लगा लेक्चरर हो जाए, पीएचडी करें तो बहुत अच्छा हो जाए.
थिएटर में आपकी काफी रुचि रही है ?
मुझे लगता रहा कि थिएटर में हाथ आजमाने चाहिए. फैसिनेट करता था, जब लोगों को थिएटर में देखता था. ड्रामा मैंने स्कूल में, कॉलेज में किया. उसके बाद भी किया. लेकिन बहुत जल्दी मुझे यह अहसास हो गया कि मैं ड्रामा नहीं करूंगा तो मरूंगा नहीं… यह बात नसीरुद्दीन शाह ने अपनी किताब में लिखी है कि जब तक आपको ये न लगे कि अगर आप नाटक नहीं करेंगे तो मर जाएंगे, तब तक आप मत कीजिए. ये मुझे बहुत पहले लग गया था कि न करूं तो मरूंगा नहीं. इसलिए इसे परश्यू नहीं किया.
लेकिन वो दुनिया मुझे बहुत अच्छी लगती है. लोग बहुत अच्छे लगते हैं जो थिएटर की दुनिया से हैं. कल्चरल परफॉर्मेंस की दुनिया से, आर्ट की दुनिया से जो लोग जुड़े होते हैं, वो अच्छे इंसान होते हैं. खुले दिल के होते हैं, संकुचित नहीं होते हैं. उनके बहुत छोटे आग्रह नहीं होते हैं.
पत्रकार को कितना पढ़ने की जरूरत है ?
पढ़ना जितना जरूरी है, उतना ही मुश्किल होता जा रहा है. हमलोग बेहद इंस्टैंट न्यूज में जीते हैं. अगर फेसबुक पर किसी ने डाल दिया तो एक आर्टिकल पढ़ लिया. मुश्किल को साधना बेहद महत्वपूर्ण है पत्रकार या किसी और आदमी के लिए.
10 पसंदीदा या पावरफुल किताबों के नाम अगर आप हमें बता पाएं, अपनी नजर से?
रसूल हमजा की किताब है- मेरा दागिस्तान. अलग-अलग तरह की किताबें पढ़ता हूं. गोर्खी को पढ़ा है. यह मेरे शुरुआत के दिनों में वर्ल्ड व्यू बनाने में मदद की. हाल में इस्लाम को समझने के लिए रजा अस्लम की किताब पढ़ी- नो गॉड बट गॉड. इस्लाम को जितने बेहतरीन तरीके से उन्होंने समझाया है, वह उम्दा है. नॉम चोम्स्की की किताबें हैं. इंडियन एथिज्म पर बहुत किताबें हैं. जो नास्तिक परंपरा रही है भारत में उस पर किताबें हैं. सांची दर्शन पर एक किताब है. रामविलास शर्मा की किताबें हैं. वो मुझे काफी फैसिनेट करती थी.. जहील देहलवी की किताब है दास्ताने गदर, राणा सफवी ने ट्रांसलेट की है.
जो छात्र बेहतर पत्रकार बनना चाहते हैं, उनके लिए आपके टिप्स या सलाह?
इसके लिए कोई फॉर्मुला नहीं है. अगर कोई पत्रकार बनना चाहता है, नेशनल या इंटरनेशनल या फ्रीलांसर के तौर पर ही, सबसे बुनियादी चीज है- नॉलेज बेस बढ़ाएं. जब तक नॉलेज नहीं बढ़ेगा, तब तक अच्छे पत्रकार साबित नहीं हो पाएंगे. बाद की बात है कि न्यूज सेंस डेवलप होता है. सबसे पहली बात है कि आपको क्या मालूम है कि इमरजेंसी हिन्दुस्तान में क्यों लगाई गई थी, 1962 का युद्ध क्यों हुआ था. नेहरू का कंट्रीब्यूशन देश को शेप देने में क्या था, गांधी की क्या कमजोरियां-खूबियां थीं. आरएसएस कब बना था, इस पर किन-किन का इंफ्लूएंस था.
यह सब मालूम नहीं होगा तो आप अच्छे पत्रकार नहीं बन सकते. तब आप बाइट कलेक्टर बन सकते हैं. आप जाएंगे, आप पूछेंगे, आपका क्या कहना है?. फिर पूछेंगे आप अपना नाम और पोस्ट भी बता दीजिए.
बैकग्राउंड मैटेरियल पढ़ना, नोट्स लेना, क्रॉसचेक करने की आदत होनी चाहिए.
राइट विंग, लेफ्ट विंग की तरफ से जो चीजें आ रही हैं, इंटरप्रेट करने की कोशिश करनी चाहिए. सबकी आपको नॉलेज होनी चाहिए.
राजेश जोशी नाम के एक और शख्स साहित्य में हैं. क्या ये हमनाम होने से कभी कोई कंफ्यूजन हुआ ? (आपने फेसबुक पर About Me में लिखा है- “कृपया ध्यान दें: मैं कवि नहीं हूं. कभी नहीं था. न कभी बनूंगा. मैं पत्रकार हूं. बस. मुझे कवि न समझें.”
मेरे लिए तो यह बहुत ही फक्र की बात है. घाटा हुआ होगा तो उनको हुआ होगा. मैं करियर के शुरुआत में अरुणाचल प्रदेश गया था, वहां से मैंने जनसत्ता में एक रिपोर्ट लिखी. तो लोगों की चिट्ठियां आईं कि राजेश जोशी जो कवि हैं कब से पत्रकारिता करने लगे हैं. अभी जब दादरी में अखलाक को मारा गया तब दादरी का अखलाक नाम से कविता लिखी फेसबुक पर. लोगों ने यह सोच कर चला दी कि राजेश जोशी कवि ने लिखी होगी. किसी टीवी चैनल में इंटरव्यू करते वक्त एंकर ने उनसे कह भी दिया कि आपने एक कविता लिखी थी दादरी का अखलाक.
आप दिल्ली मेट्रो में काफी ट्रैवल करते हैं?
दिल्ली मेट्रो में मैं रोजाना ट्रैवल करता हूं. मैं लंदन में था तो वहां सभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करते थे. लंदन से दिल्ली आया तो जेब से बस का टिकट निकला तो कुछ लोगों को अचंभा हुआ. पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करना जरूरी है. सरकार की जिम्मेदारी है उसे मजबूत बनाए. जब से मेट्रो आई है. मैं घर से निकलता हूं, बस में बैठता हूं, मेट्रो में जाता हूं. 20 मिनट में ऑफिस पहुंचता हूं. ये सुविधाजनक है मेरे लिए. निजी कार को स्टेट्स से जोड़ दिया गया है. गांव भी जाता हूं तो भी मैं ट्रेन और बस में जाता हूं.
पत्रकारिता के छात्रों के लिए आपका संदेश ?
यार जब यह सवाल पूछा जाता है तब लगता है कि कोई ऋषि मुनि ओखले पर बैठा है…(हंसते हुए) ऐसा कोई संदेश नहीं है. एक संदेश यह है कि अपना नॉलेज बेस बढ़ाइए, आपको अपने नॉलेज में बड़े-बड़े गैप्स नजर आएंगे. क्या उस गैप को भर सकेंगे आप? अगर वो भरने का माद्दा आपके अन्दर है, पेशेंस आपके अन्दर है और फोकस्ड आप हैं तो पत्रकारिता में आइए. उसके बाद है आपका समाज के लिए जिम्मेदारी. अगर जिसको दबाया कुचला जा रहा है उसके पक्ष में नहीं खड़े हैं आप तो वह पत्रकारिता मीनिंगलेस है. यह मैंने प्रभाष जोशी और विनोद मेहता से सीखी है.
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